भाया!कुछ बातों का जवाब अपनें आप मिल जाता है। मेरे साथ भी यही कुछ हुआ। जब नया साल शुरू होने के कुछ दिन पहले से ही फैक्टरी में काम की अधिकता के कारण मुझे वहीं रूकना पड़ा। हुआ ऐसे कि फैक्टरी का मनैंजर कमीशन खा रहा था। यह बात एक फैक्टरी के कर्मचारी अनवर को पता लग गई। हमनें कहा मालिक से सीधे बात करों या मैनेंजर से बात करों। उस से कहो कि सभी कामगारों को भी उस मे हिस्सा दो। क्यूँकि ज्यादा मेहनत तो कामगारों को करनी होगी। पास खड़े एक दूसरे कर्मचारी ने कहा-"मिया! इस की डर के मारे फटती है।"
अनवर ने जवाब दिया-"मिया जी! सच कहते हो। मेरी तो पैदाईश से ही फटी हुइ है।...लगता है तुम्हारी नही फटी हुई...इसी लिए अब तुम मुँह से हगते और मूतते रहते हो।"
उस की बात सही थी आज कुछ लोग ऐसी ही जुबान का इस्तमाल करते हैं। यह बात तब साबित हुई,जब अनवर की कही बात मैंनेजर के कानों तक पहुँची। पहले तो मैंनेजर ने खूब भद्द निकाली। लेकिन अपनें कामगारों के सामनें अपनी इज्जत बचानें की खातिर सभी कामगारों को कमीशन मे से हिस्सा देने के लिए मजबूर होना पडा।
अनवर मिया तो अब खुश थे लेकिन मैंनेजर के कुछ चमचे हगनें और मूतने लगे थे उस पर। हमनें पूछा-"मिया जी,आप इन्हें कुछ कहते क्यों नहीं?"
अनवर मिया बोले-"साहब जी,हम जो चाहते थे वह मकसद तो पूरा हो गया,अब कुछ कहनें की वजह हमको तो नजर नही आती।....साहब जी ,कहते हैं ना कुत्ता अपनें भौंकने की आदत को कभी नही छोड़ता...आनें जानें वालों पर भौंकना उस की फितरत है...उस की परवाह क्या करनी।"
बात तो सही थी,जब तुम्हारी बात का मकसद पूरा हो जाए तो उसी बात को लेकर बतियाते रहना नासमझी ही है।
कुछ दिनों बाद जब काम से थका हारा घर जा रहा था,अभी अपनी गली में पहुँचा ही था कि तभी देखा। कुछ लोग आपस में बहुत वेहशीयानें ढंग से झगड़ रहे थे। भीड़ लगी हुए थी। पास जा कर देखा,तो पता चला एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी के घर के आगे कूड़ा फैंक दिया था इसी वजह से झगड़ रहे थे। गाली गलोच हो रहा था। लेकिन दोनों में से कोई शख्स माननें को तैयार नही था कि यह कूड़ा उसनें फैंका है,दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे और एक दूसरे को कूड़ा उठानें की हिदायत दे रहे थे,वर्ना बुरा नतीजा भुगतनें की बात कर रहे थे। इसी बीच पता नही कहाँ से एक बुजुर्ग जो कि किसी बड़े घर का लग रहा था, हाजिर हुआ और सारा कूड़ा एक लिफाफे में डाल वहाँ से चलता बना। जब वह हमारे पास से गुजरा तो उसे सलाम के लिए हमारा हाथ भी अपनें आप उठ गया। वह सलाम का जवाब देता हुआ वहाँ से चला गया। उस समय वहाँ जो शख्स आपस में लड़ रहे थे,उस बजुर्ग को देख उन के चहरे पर शर्मींदगी साफ नजर आ रही थी। वह बेनाम अनजान बुजुर्ग कौन था यह हमारी गली वाले आज तक नही जान पाए। शायद अच्छे काम को करनें के लिए नाम की जरूरत नही होती।
रात को सोनें से पहले इन बातॊं को लेकर कुछ उगलनें को मन करनें लगा,सो कुछ दोहे रच डाले,जो हाजिर हैं और बताए अपनी बात कहनें का यह तरीका कैसा लगा आपको?
अनवर ने जवाब दिया-"मिया जी! सच कहते हो। मेरी तो पैदाईश से ही फटी हुइ है।...लगता है तुम्हारी नही फटी हुई...इसी लिए अब तुम मुँह से हगते और मूतते रहते हो।"
उस की बात सही थी आज कुछ लोग ऐसी ही जुबान का इस्तमाल करते हैं। यह बात तब साबित हुई,जब अनवर की कही बात मैंनेजर के कानों तक पहुँची। पहले तो मैंनेजर ने खूब भद्द निकाली। लेकिन अपनें कामगारों के सामनें अपनी इज्जत बचानें की खातिर सभी कामगारों को कमीशन मे से हिस्सा देने के लिए मजबूर होना पडा।
अनवर मिया तो अब खुश थे लेकिन मैंनेजर के कुछ चमचे हगनें और मूतने लगे थे उस पर। हमनें पूछा-"मिया जी,आप इन्हें कुछ कहते क्यों नहीं?"
अनवर मिया बोले-"साहब जी,हम जो चाहते थे वह मकसद तो पूरा हो गया,अब कुछ कहनें की वजह हमको तो नजर नही आती।....साहब जी ,कहते हैं ना कुत्ता अपनें भौंकने की आदत को कभी नही छोड़ता...आनें जानें वालों पर भौंकना उस की फितरत है...उस की परवाह क्या करनी।"
बात तो सही थी,जब तुम्हारी बात का मकसद पूरा हो जाए तो उसी बात को लेकर बतियाते रहना नासमझी ही है।
कुछ दिनों बाद जब काम से थका हारा घर जा रहा था,अभी अपनी गली में पहुँचा ही था कि तभी देखा। कुछ लोग आपस में बहुत वेहशीयानें ढंग से झगड़ रहे थे। भीड़ लगी हुए थी। पास जा कर देखा,तो पता चला एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी के घर के आगे कूड़ा फैंक दिया था इसी वजह से झगड़ रहे थे। गाली गलोच हो रहा था। लेकिन दोनों में से कोई शख्स माननें को तैयार नही था कि यह कूड़ा उसनें फैंका है,दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे और एक दूसरे को कूड़ा उठानें की हिदायत दे रहे थे,वर्ना बुरा नतीजा भुगतनें की बात कर रहे थे। इसी बीच पता नही कहाँ से एक बुजुर्ग जो कि किसी बड़े घर का लग रहा था, हाजिर हुआ और सारा कूड़ा एक लिफाफे में डाल वहाँ से चलता बना। जब वह हमारे पास से गुजरा तो उसे सलाम के लिए हमारा हाथ भी अपनें आप उठ गया। वह सलाम का जवाब देता हुआ वहाँ से चला गया। उस समय वहाँ जो शख्स आपस में लड़ रहे थे,उस बजुर्ग को देख उन के चहरे पर शर्मींदगी साफ नजर आ रही थी। वह बेनाम अनजान बुजुर्ग कौन था यह हमारी गली वाले आज तक नही जान पाए। शायद अच्छे काम को करनें के लिए नाम की जरूरत नही होती।
रात को सोनें से पहले इन बातॊं को लेकर कुछ उगलनें को मन करनें लगा,सो कुछ दोहे रच डाले,जो हाजिर हैं और बताए अपनी बात कहनें का यह तरीका कैसा लगा आपको?
जो चाहा सो हो गया,अब काहे का रोष।
झाँक देख गिरेबां निज,पहले आपन दोष॥
करें मजूरी साथ-साथ,मिल बाँट सब खाएं।
ऊँचा बोल ढंढोरची, यही रहा समझाएं॥
नींव की ईटं नजर कभी आए ना मेरे भाई।
इसी लिए बेनाम हो हमनें कलम चलाई॥
राह चलते लोगन देख कर,कूकर करते शोर।
कूकर का स्वाभाव यह,उस पे ना कीजै गौर॥
अब नया साल तो कब का शुरू हो चुका लेकिन फिर भी अपने सभी चिट्ठाकार भाई-बहनों को नये साल की मुबारक।
1 टिप्पणियाँ:
January 8, 2008 at 1:44:00 AM GMT+5:30
साथी सलाम।
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